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ए॒ताऽअ॑र्षन्ति॒ हृद्या॑त् समु॒द्राच्छ॒तव्र॑जा रि॒पुणा॒ नाव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअ॒भि चा॑कशीमि हिर॒ण्ययो॑ वेत॒सो मध्य॑ऽआसाम् ॥९३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒ताः। अ॒र्ष॒न्ति॒। हृद्या॑त्। स॒मु॒द्रात्। श॒तव्र॑जा॒ इति॑ श॒तऽव्र॑जाः। रि॒पुणा॑। न। अ॒व॒चक्ष॒ इत्य॑ऽव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। अ॒भि। चा॒क॒शी॒मि॒। हि॒र॒ण्ययः॑। वे॒त॒सः। मध्ये॑। आ॒सा॒म् ॥९३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:93


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसी वाणी का प्रयोग करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (रिपुणा) शत्रु चोर से (न, अवचक्षे) न काटने योग्य (शतव्रजाः) सैकड़ों जिनके मार्ग हैं, (एताः) वे वाणी (हृद्यात्, समुद्रात्) हृदयाकाश से (अर्षन्ति) निकलती हैं, (आसाम्) इन वैदिक धर्मयुक्त वाणियों के (मध्ये) बीच जो अग्नि में (घृतस्य) घी की (धाराः) धाराओं के समान मनुष्यों में गिरी हुई प्रकाशित होती हैं, उनकी (हिरण्ययः) तेजस्वी (वेतसः) अतिसुन्दर मैं (अभि, चाकशीमि) सब ओर से शिक्षा करता हूँ ॥९३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे उपदेशक विद्वान् लोग जो वाणी पवित्र, विज्ञानयुक्त, अनेक मार्गोंवाली शत्रुओं से अखण्ड्य और घी का प्रवाह अग्नि को जैसे उत्तेजित करता है, वैसे श्रोताओं को प्रसन्न करनेवाली हैं, उन वाणियों को प्राप्त होते हैं, वैसे सब मनुष्य अच्छे यत्न से इन को प्राप्त होवें ॥९३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कीदृशी वाक् प्रयोज्येत्याह ॥

अन्वय:

(एताः) (अर्षन्ति) गच्छन्ति निस्सरन्ति (हृद्यात्) हृदये भवात् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात् (शतव्रजाः) शतमसंख्याता व्रजा मार्गा यासां ताः (रिपुणा) शत्रुणा स्तेनेन। रिपुरिति स्तेननामसु पठितम् ॥ (निघं०३.२४) (न) निषेधे (अवचक्षे) अवख्यातव्याः (घृतस्य) आज्यस्य (धाराः) (अभि) (चाकशीमि) सर्वतोऽनुशास्मि (हिरण्ययः) तेजःस्वरूपः (वेतसः) कमनीयः (मध्ये) (आसाम्) वेदधर्मयुक्तवाणीनाम् ॥९३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - या रिपुणा नावचक्षे शतव्रजा एता वाचो हृद्यात् समुद्रादर्षन्त्यासां मध्ये या अग्नौ घृतस्य धारा इव जनेषु पतिताः प्रकाशन्ते, ता हिरण्ययो वेतसोऽहमभिचाकशीमि ॥९३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोपदेशका विद्वांसो याः पवित्रा विज्ञानयुक्ता अनेकमार्गाः शत्रुभिरखण्ड्या घृतस्य प्रवाहोऽग्निमिव श्रोतॄन् प्रसादयन्ति, ता वाचः प्राप्नुवन्ति, तथा सर्वे मनुष्याः प्रयत्नेनैताः प्राप्नुयुः ॥९३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. उपदेशक विद्वान लोक, शत्रूकडून पराजित न होणारी, पवित्र विज्ञानयुक्त व तूप जसे अग्नीला प्रदीप्त करते तशी श्रोत्यांना मंत्रमुग्ध करणारी वाणी प्राप्त करतात तशी वाणी सर्व माणसांनी प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करावी.